शनिवार, 30 जून 2012

अथिति सत्कार


                 बात उन दिनों की हैं, मैं मुंबई में रहा करता था। हमारें सभी  सहकर्मी मिलकर यह  सोच लिया  की बरसात मौसम में  कही जाने का, जैसा की कोई हिल स्टेशन जहां  पानि के बहुत सारे झरने हो। आखिर में माथेरान जाने का कार्यक्रम निश्चित हो गया। हमारें प्लान के हिसाब से सभी लोग कुर्ला स्टेशन पर मिलेंगे और वहाँसे दादर, और दादर से हम लोग हमारे सहकर्मी लीना के घर जाकर उसें साथ लेंगे और रात के बारा बजे कर्जत जाने वाली आखरी लोकल जो नेरल स्थानक जाती,वहाँ से माथेरान। 

            हम घर से सात बजे ही निकल चुकें थे। दादर स्थानक के बहार खड़े होकर हम मीना का इन्तजार कर ही रहे थे, उतने में वो आ गयी। हम सात लोग थे, इसलियें हमें दो टैक्सी में सवार होना था, क्यूंकि मुंबई में सायन के आगे ऑटोरिक्शा नहीं चलते  और लीना के घर जाने का प्लान बना।  जाते समय हमारे सभी साथी यह कह  रहे थे की लीना के घर जाकर हम कुछ खा लेंगे और वहां से निकल लेंगे। लीना वरली में रहती थी।

          हम ने टैक्सी से उतरकर लीना के फ्लैट में दस्तक दी। लीना ने द्वार खोलकर वेलकम कहते हुए हमारा  स्वागत किया। जैसा ही हम फ्लैट में दाखिल हुयें लीना ने हम सब का परिचय आपने माँ से करवाया। हम थोड़ी देर तक बैठे रहें और सोचते रहें की थोड़ी देरमें कुछ खाने का इंतजाम होगा। लेकिन..... किसी ने सच ही तो कहा था की दाने दाने पे लिखा हैं खाने वालें का नाम। अब हमें पता चल चुका था की हमारें नाम के दाने उस घर में नहीं थे।  खाना तो बहुत ही दूर की बात थी, उसने पानी तक नहीं पूछा। फिर हमारे एक दोस्त ने पिने के लियें पानी मांगकर लिया।  थोड़ी देर बाद हम वहांसे निकलें और सत्यम शिवम् सुन्दरम सिनेमा घर के बाहर खड़े ठेलें पर कुछ खा कर पेट की भूक मिटा ली।  ऐसा अथिति सत्कार हमने पहली बार देखा। वैसा तो हम मुंबई में बहुत से दोस्तों के घर जाया करते थे, और कुछ  खाने के बाद ही निकलते थे।  लीना जोशी का यह अथिति सत्कार एक यादगार पल बन चुका था।

शुक्रवार, 29 जून 2012

लिफ्ट प्लीज़!

   

  बात उन दिनों की हैं, जब मैं कॉलेज में था। मैं  जब भी कॉलेज से शहर की और जाता  था, तो किसीना किसीसे लिफ्ट मांगकर  जाया करता था। हमारा  कॉलेज शहर से 6 की मी दुरी पर था। एक दिन मैं हमेशा की तरह बस स्टॉप पे खड़ा था बस आकर चली गयी, लेकिन मैं  किसी लिफ्ट वाले का इन्तजार करते वही पे खडा था। बस का किराया जो  बचाना था। मैंने  एक बाइक  वाले से लिफ्ट मांगी, और उसने मुझे लिफ्ट दे दी, जब मैं लिफ्ट लेकर उतरने लगा तो उसने कहा चलो बीस  रूपये निकालो ? मैंने कहा मेरे पास तो सिर्फ  बीस रुपये हैं, इससे मैं पिक्चर देखना चाहता हूँ। चलो फिर दस रूपये दे दो और दस रूपये का फिल्म देख लेना। मैंने दस रुपयें निकाल के उस में हाथ में थमा दिए। बस फेयर के दो रूपये बचाने के चक्कर में दस रूपये गवां चुका था।
         बहुत  बार ऐसा होता हैं की हम जो  सोचते हैं, वो होता नहीं। इसी के साथ मैं मेरा फिल्म देखने  का प्रोग्राम रद्द करना पड़ा । क्यूँ की  10 रुपये  में मैं फिल्म तो देख लेता तो, लेकिन लौटकर जा  नहीं सकता था।
         इस वाकये बाद मैं मेरी लिफ्ट मांगने की  आदत बदल दी। और सिर्फ बस से ही  शहर जाने लगा था। यह हादसा जब मैं मेरे लिफ्ट मांगने  वालें दोस्तों को सुनाया तो उन्होंने ने भी लिफ्ट लेना बंद कर दिया। मैं जब यह वाकया मेरे दोस्तों को सूना रहा था तभी  मेरे  लिफ्ट लेनेवाले एक  दोस्त ने कहा, मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ था। जब हम ने उसे पूछा पहले क्यूँ नहीं बताया तो उसने कहा, अगर मैंने  पहलेही बता दिया होता तो आप लोग मेरा मजाक उड़ाते। बात सही थी क्यूँ की यह उसी  का तर्क था, जो हमें एक नया सबक सिखने को मिला।