शुक्रवार, 31 अगस्त 2012

"सेकंड हैन्ड weds हलकट"

        
        "सेकंड  हैन्ड जवानी" के बाद अब "हलकट जवानी" ने धूम मचा दिया हैं। असलियत क्या हैं, चलो जान लेते हैं।

               एक शहर में "सेकंड हैन्ड जवानी" नाम का आदमी  रहता था। यहाँ इंसान की जगह आदमी शब्द का प्रयोग किया हैं, क्यूँ की इंसान की एक विशिष्ट परिभाषा होती हैं, लेकिन आदमी कहना सरल और सहज होता हैं। अब उसका असली नाम क्या हैं, क्या था, पता नहीं। लेकिन सभी लोग उसे "सेकंड  हैन्ड जवानी" कहकर ही बुलाते हैं। इसके पीछे भी एक कहानी हैं। वह कहानी इस तरह हैं की, उसने  पत्नी को  तलाक़ दे दिया, जिसके दो संतान थे, तलाक़ के बाद वो अपने माँ के साथ ही रहते हैं। अब यहाँ सोचने वाली बात यह हैं की, जो आदमी अपनी जवानी की भूख मिटाने के बाद, बीवी को तलाक़ देता हैं, उसके साथ साथ  परिवार को भी ख़त्म कर देता हैं। 


              एक दिन "कॉकटेल" पार्टी में उसकी मुलाक़ात एक लड़की से होती हैं, उसका नाम था "हलकट जवानी।" हलकट जवानी और "सेकंड  हैन्ड जवानी" के बिच में प्यार होता हैं। अब दोनों शादी करना चाहतें हैं। इस लियें लोग उसे "सेकंड हैन्ड जवानी " के नाम से जानते हैं।
    
           अब तक हमने "सेकंड हैन्ड जवानी" के बारें में जान चुके है, अब हम "हलकट जवानी" के बारें में जानतें हैं। "हलकट जवानी" नाम की एक सुन्दर और जवान कन्या हैं, जो की दिखने ने में किसी  "हीरोइन" से कम नहीं। पुरे दुनिया में उसकी सुन्दरता के चर्चे हैं। इस दुनिया में उसें कहीं  भी एक अच्छा, सुशिल "फर्स्ट हैन्ड" जवान लड़का मिल सकता था। लेकिन वो सिर्फ "सेकंड हैन्ड जवानी" से ही प्यार करती हैं। इस लियें लोग उसें "हलकट जवानी" के नाम से जानते हैं। 

         जो आदमी अपनी  पहली बीवी को तलाक़ देकर दूसरी शादी कर रहा हैं, यह सब जानने के बाद भी "हलकट जवानी" उसके प्यार में पागल हो चुकी हैं। क्या करे, जवानी चीज ही ऐसी होती हैं। ऐसी हैं "हलकट जवानी" की कहानी। 


         अब आप इसे प्रेम कहानी कहें  या लगाव, जो की यौनक्रिया के  लिय जरुरी हैं। अब शादी की बात पक्की हो चुकी हैं। कुछ दिनोंमें कार्ड छपने वालें हैं की, "सेकंड हैन्ड weds हलकट।"

मंगलवार, 28 अगस्त 2012

बांग्लादेशी मुसलमान

              असम के दंगे, मुंबई में रैली के दौरान हिंसा, क्या यह सब बांग्लादेशी मुसलमानों की करतूत तो नहीं हैं? क्यूंकि उन लोगों के खून में हिंसा, बलत्कार और कट्टरवाद भर चुका है, और अब यह उनकी आदत बन चुकी हैं। इसका प्रमाण हैं तसलीमा नसरीन की "लज्जा" जो वहां के हालात के चित्रण के साथ साथ पुरे दुनिया के लिए एक उदाहरण हैं। बात जब तक उनके देश तक सिमित हैं,  हम कुछ भी नहीं कर सकते, जब यहीं  बात  हमारें भारत देश में होती हैं तो हमें सोचना पड़ेगा की इसका इलाज़ क्या हैं, इसका निवारण कैसे हो।
 
           दुनिया में जहां भी हो, वो दंगे करेंगे, क्यूँ की, उनको आदत पड़ चुकी हैं की, दुसरे धर्म पर आक्रमण करकर उनके जान माल को क्षती पहुंचाना। अब यही चेहरा उभरकर आ रहा हैं। जब वो खुद के देश में इतना सब कुछ करते हैं तो, दुसरे देश में इससे भी कई ज्यादा करेंगे। क्यूँ की वो उनका देश नहीं हैं। दुसरे कौनसे देश में भी इजाजत के बिना जा नहीं सकतें, सिर्फ भारत को छोड़कर।

          हम सब अपने अपने गाँव से प्यार करते हैं, जहाँ हमने अपना बचपन गुजारा हैं। हम सब अपनी भूमि से प्यार करते हैं, इस लिय तो हम सब इन विषयों पर सोचते हैं। अब बात यह हैं की जो लोग विदेश से आकर यहाँ बसते हैं, वो देश के बारें में क्यूँ सोचेंगे? सोच भी नहीं सकते। एक तरफ बांग्लादेशी मुस्लिम जो देश में आकर आतंक  मचा रहें हैं, दूसरी तरफ विदेशी देश चला रहें हैं। इसमें देश प्रेम कहाँसे आयेगा, और जब तक देश के प्रति प्रेम नहीं हैं वो देश हित में कदम क्यूँ उठाएंगे।

          जब पकिस्तान, इराक़  और अफगानिस्तान हर रोज़ कई मुस्लिम लोग आतंक से  मारे जातें हैं, तब कोई मोर्चा नहीं निकालता, कोई आवाज़ नहीं उठती। असम में लोग मरते हैं, कोई मोर्चा नहीं निकालता, कोई आवाज़ नहीं उठती। सरकार चुप, मीडिया चुप, और नेता भी चुप।  लेकीन जब  बर्मा में कुछ लोग मरते हैं तो मुंबई से लेकर लन्दन तक मोर्चे निकालते  हैं।  क्या जो पकिस्तान, इराक  और अफगानिस्थान  में मरने वालें इंसान नहीं है? वो भी इंसान हैं लेकिन मरने वाले और मारने वाले एक ही धर्म के हैं।क्या असम में मरने वालें इंसान नहीं हैं? असम की बात अलग हैं वहाँ जो मर रहें हैं वो तो मोर्चे वालें धर्म के नहीं हैं। टीवी  पर बड़े बड़े बातें करनेवालें फ़िल्मी लोग, जावेद अख्तर, आमिर खान आदि,  किसी ने भी नहीं कहा की असम में गलत हो रहा हैं।  देश के नेता लोग क्या करेंगे जो गुलाम बन बैठे हैं।.....आखिर कब कब तक सहेंगे ?

रविवार, 26 अगस्त 2012

सरकारी सोशल मीडिया

   
     
     जब अन्ना का पहला सफल आन्दोलन हुआ था, इसमें सोशल नेटवर्क का बहुत ही बड़ा योगदान रहा। सरकार तभी से सोशल मीडिया के तरफ कटाक्ष नज़र से देखने लगी थी। संचार मंत्री ने उस वक्त यह भी कह डाला था, की सोशल मीडिया को बंद कर देना चाहिय। समय उचित नहीं था, इस लिय सरकार ने एक प्लानिंग के तहत काम करना शुरू किया। पूरी सोशल नेटवर्क पाबंदी लाने से बेहतर यह होगा की जो जरुरी नहीं उन्ही लोगों के खाते बंद करना ठीक रहेगा, इससे सांप भी मरें लेकिन लाठी भी ना टूटे।

                   पहली बात तो यह हैं की सोशल मीडिया में कुछ लोगों पर पाबंदी देशहित में तो होही नहीं सकती, लेकिन पार्टी के हित में भी नहीं होगी, क्यूंकि इस मीडिया में जितने भी लोग हैं, उसमें ज्यादा लोग तो इस सरकार के बारे में उलटा सीधा कहने वालें ही हैं। इसका खामियाजा पार्टी  को  उठाना पडेगा,क्यूंकि जिन लोगों के खाते बंद कर दियें, इससे सरकारी पार्टी को  कुछ भी फायदा नहीं होगा, क्यूँ की जिन लोगों के खाते बंद होने वाले हैं, या हो गए हैं, वो तो सरकार के पक्ष कभी नहीं थे, या नहीं रहेंगे। लेकीन  इससे आम लोगों में एक सन्देश जरुर जाएगा की सरकार जो कुछ कर रही हैं, वो ठीक नहीं। लेकिन आम आदमी की परिभाषा क्या है? क्या आम आदमी वही हैं जो की सोशल मीडिया से जुडा हैं।
   
           सरकार असम का हिंसा के आड़ में सोशल मीडिया के कुछ लोगों के खाते बंद करके, मुसलमान वोटों को अपने तरफ खींचने की एक नयी चाल तो नहीं हैं? लेकिन इससे एक बात तो साबित हो गयी हैं की सरकार असम के आड़ में आरएसएस और कुछ मीडिया कर्मी  के ट्वीटर खाते बंद कर चुकी हैं इसका सीधा मतलब  यह हैं, सरकार को असम हिंसा से कुछ भी लेना देना हैं। क्या यह 2014 के चुनाव के लिय वोटबैंक की रणनीति तो नहीं हैं?

         लेकिन इन सब बातोंसे यह लगता हैं की सरकार अपने पॉवर का इस्तमाल लोकशाही के लिय नहीं, बल्की हुकुमशाही के लिय कर रही हैं, जो की देशहित में नहीं होगा, देशहित की बात तो छोड़ दो, उसके बारें में सोचता कौन हैं? लेकिन यह पार्टी के हितमें भी नहीं हैं। क्या सोशल मीडिया भी सरकारी सोशल मीडिया बनेगा?  जैसा की सरकारी टीवी मीडिया, सरकारी स्कूल, सरकारी अस्पताल आदि।

गुरुवार, 16 अगस्त 2012

भारत का मुसलमान हूँ


फेसबुक पर टैग की गयी तस्वीर पर एक "लघुलेख"

           अब बात यह हैं यहाँ दो बातें हैं, जैसा की की मैं भारतीय हूँ, और मैं भारतीय मुसलमान हूँ। मैं भारतीय हूँ इसमें एकता का भाव दर्शाता हैं। मैं भारतीय मुसलमान हूँ इसका मतलब यह हैं की, इसमें दो भाव नज़र आतें हैं, जैसा की  सिर्फ एक धर्म के बारें में बताने वाला हूं, जो की  भारत में रहता हूँ । इस लियें हमें यह कहना ठीक होगा की, "मैं भारतीय हूँ"।

         पुरी दुनिया जानती  हैं की ताजमहल किसने और कैसे बनाया। टीपू सुलतान की तो बात तो अलग हैं, उसे तो हर हिन्दुस्तानी जानता हैं। हमें गर्व हैं की एक मुहम्मद इकबाल  ने "सारें  जहां से अच्छा" यह गीत देश के नाम लिखकर देश को एक बड़ा तोहफा दिया हैं।  हम इन महान लोगों को कभी भूल नहीं सकतें।  इन महान लोगों को साथ दहशतगर्द की तुलना करना, या इस शब्द का प्रयोग करना उचित नहीं होगा। 

          जिसने मुंबई  पे  हमला किया वो कौन था ? जिसने पार्लमेंट पे हमला किया वो कौन था? पकिस्तान में रहने वाले हिन्दू लोगों को देश से निकाल रहें  हैं वो कौन हैं ?  भारत में घुस कर असम  में दंगा फैला रहे हैं, वो कौन हैं ? 
   
       दहशतगर्द  सिर्फ दहशतगर्द होता हैं।  हम तो  सिर्फ उन्हें  दहशतगर्द मानतें हैं जो किसी भी सूरत में देश में आतंक फैलाकर देश के मासूम लोगों का शिकार करतें हैं, उनका कोई धर्म नहीं होता। 

         जब तक हम यह नहीं कहते की"मैं भारतीय हूँ", ना की भारत का मुसलमान हूँ, भारत का हिन्दू हूँ, भारत का इसाई हूँ या भारत का सिख हूँ। जब तक हम यह नहीं कहते की हम भारतीय हैं, इसमें  एक अलग ही जज्बा होगा, जो सिर्फ देश के लिए होगा। 

मंगलवार, 14 अगस्त 2012

सन्देश या आदेश

   
     आजादी का मतलब एक दिन की छुट्टी और राष्ट्र ध्वज फहराना यहाँ तक सिमित नहीं हैं। उसके साथ साथ आजादी का जश्न  यानि राष्ट्रपति का सन्देश, जो मुफ्त में देख सकते हैं दूरदर्शन पर।

        राष्ट्रपती का देश के नाम पहला सन्देश कुछ ऐसा लगता था की देश के प्रति कम और उन आन्दोलन करने वाले लोगों को दबाने के प्रति ज्यादा और  भ्रष्ट  नेताओं को संविधान  के आड़ में सुरक्षा देना यही दर्शाता हैं। इससे ज्यादा उम्मीद हमारे राष्ट्रपति से करना उचित नहीं होगा, क्यूंकि वो खुद किसी के अहसान तलें दबे  हुए हैं। इसी सन्देश में एक आदेश छुपा हैं। आज़ादी के सन्देश के लिये  भी आजादी नहीं हैं।

इसी सन्देश से निकले कुछ सवाल, जवाब कौन देगा? 

  • क्या अंग्रेज भी हमारें शहीदों के प्रति यही ख़याल तो नहीं रखते थे? अब जो लोग  सरकार के विरोध में आन्दोलन करतें हैं।
  • अगर ऐसा हैं तो क्या फर्क हैं, उन शहीदों में और आज के आन्दोलन करने वाले लोगों में?  वो भी तो यही सोच कर आन्दोलन करते थे, की देश आज़ाद हो। क्या  भ्रष्टाचार से आज़ादी चाहना हमारा अधिकार नहीं हैं ? 
  • अगर लोग संविधान पर ऊँगली उठाते हैं तो, इसके लिय कौन जिम्मेदार हैं? क्या आन्दोलन करना या सरकार के खिलाप आवाज़ उठाना लोकतंत्र नहीं हैं?
  • क्या भ्रष्ट नेता को सजा मिल सकेगी? कब और कैसे? अगर मिलती हैं तो अब भ्रष्ट नेता जेल में क्यूँ नहीं हैं?
  •  क्या वजह हैं की हमारें देश में नेता शब्द का अर्थ बदल गया हैं? शुभाष चन्द्र बोस भी नेताजी के नाम से जाने जाते हैं , लेकिन उनके बारें में लोगों के मन में उतना प्रेम और सन्मान क्यूँ हैं?
  • क्या आप देश के उच्चतम पद  का उपयोग करके इस भ्रष्ट नेताओं को सजा  देने का प्रयास करेंगे ? क्या  आप  भ्रष्टाचार निर्मूलन के लियें कुछ ठोस कदम उठाएंगे ?
  • आज देश के हालात के  लियें कौन जिम्मेदार हैं? क्या संसद में बैठे लोग जिम्मेदार नहीं हैं?
  • अगर सरकार चाहें तो सब कुछ संभव हैं। अब सवाल यह हैं की, सरकार लोगों को ऊँगली उठाने का मौक़ा क्यूँ देती हैं?  
      मेरे वतन के लोगो, देखो और जागो, आँख में भर लो पानी, लेकिन रोना नहीं, क्यूँ की कुछ दिन बाद यह आसूं भी सुक जायेंगे। चाहे कुछ भी हो नेता और संसद के बारें में कुछ भी कहना नहीं, क्यूँ की हम लोग ही उस नेता को देश संभालने के लिए भेजा हैं। अब आप इसे सन्देश समझो या आदेश यह आप पर निर्भर करता हैं। 


शनिवार, 11 अगस्त 2012

चीन का दबदबा

   
      चीन का दबदबा पुरे दुनिया में छा गया हैं, इसका प्रमाण हैं लन्दन ओलंपिक्स  की मेडल टैली। क्या भारत इस मकाम तक पहुँच पायेगा? आज चीन का मुकाबला भारत से नहीं बल्कि सीधा अमेरिका से हैं। चीन दुनिया को बताना चाहता हैं की हम किसीसे कम नहीं।

      जब 1952 के सम्मर ओलम्पिक्स फिनलैंड के हेलसिंकी में आयोजित, उसमें चीन को एक भी मेडल नहीं मिला था। उस बार अमेरिका 40 गोल्ड, 19 सिल्वर और 17 ब्रान्झ, कुल 76 पदाकोंके साथ नंबर एक पर था। रूस 22 गोल्ड के साथ दुसरे नंबर पर था। और भारत एक गोल्ड और एक  ब्रान्झ के साथ 26 वे स्थान था।

     1960 का ओलम्पिक इटली के रोम खेला गया था। रूस पहले स्थान तो अमेरिका दुसरे स्थान पर था। भारत और चीन एक एक सिल्वर के साथ  32 वे स्थान पर थे।

    1964 के ओलम्पिक में भारत एक गोल्ड के साथ 24 वे स्थान पर था। इस बार चीन के ताइवान टीम को खाली  हाथ लौटना पडा। उसके बाद 1968 में भारत और  ताइवान चीन को एक एक ब्रान्झ मेडल से लौटना पडा। 1976 में चीन के ताइवान और भारत को खाली  हाथ लौटना पड़ा।

     जब 1984 में चीन 15 गोल्ड के साथ चौथे स्थान पर आ गया। भारत कोई भी मेडल नहीं ले सका।इसके बाद चीन कहता गया की रोक सके तो रोक लेना।

          अब दुनिया में चीन अमेरिका को पछाड़ने की तैयारी  में लगा हैं। क्या भारत  यह स्थान हासिल कर पायेगा ? इसके लियें  एक लम्बी और पूर्व नियोजित  योजना की जरुरत हैं, जो चीन ने अपनाई हैं। हमारी सरकार तो सिर्फ भ्र्ष्ठाचार की तरफ बढ़ रही हैं। ऐसें में क्या देश में खेल का विकास हो पायेगा? क्या चीन के इस चौतरफा विकास को हम चुनौती दे सकते हैं?  क्या हमारी आनेवाली पीढ़ी गर्व से कह सकेगी 'मेरा भारत महान"। अब वक्त आ गया हैं की हमें कुछ करना होगा और इस देशद्रोहियोंको सत्ता से हटाना होगा।  कब तक सहेंगे हम, आखिर कब तक?


गुरुवार, 2 अगस्त 2012

टीवी मीडिया..


(फेसबुक में टैग की गयी एक  तस्वीर)

         क्या भारतीय टीवी  मीडिया का रूप बदल चुका हैं ? क्या हमारा टीवी मीडिया लोगोंका भरोसा  जितने का मौक़ा गवां चुका  हैं? क्या टीवी  मीडिया को लोग किसी भ्रष्ट नेता  की तरह तो नहीं देख रहे हैं? सवाल बहुत सारे लेकिन जवाब कौन देगा?

          फेसबुक पर तो बहुतसे लोगोंने  मीडिया पर अपनी राय जाहिर की हैं, की हमारा टीवी मीडिया बिकाऊ हैं। हमारा मीडिया निष्पक्ष ख़बरें देने में असहाय हैं। अब सवाल उठना लाज़मी हैं, क्यूँ की असम में जो कुछ हुआ क्या वो गुजरात के दंगो से कम था। आखिर ऐसी क्या वजह हैं की मीडिया लोगों का भरोसा जितने में  नाकाम हो रहा हैं। बहुतसे लोगों की राय यह हैं की निचे दियें गएँ कारणोंसे मीडिया अपना वजूद खोता जा रहा हैं।

  1. असम जलता रहा लेकिन मीडिया का कवरेज निष्पक्ष नहीं रहा।
  2. जरूरत से ज्यादा मोदी को निशाना बनाना।
  3. सत्ताधारी लोगों के बारें में बहुत कम बोलना।
  4. ख़बरें तोड़ मोड़ कर पेश करना।
  5. कभी कभी दिन भर एक ही खबर को घिसातें रहना।
  6. अन्ना का कवरेज पहले जैसा नहीं किया। 
मीडिया को लोकशाही का  चौथा खम्बा कहा जाता हैं। क्या इस खम्बे में पक्षपात की दरारें तो नहीं आ रही हैं? यह सब बातें  हमें यह सोचने पर मजबूर करती हैं, की क्या हमारा मीडिया बिकाऊ तो नहीं हैं?