शनिवार, 29 दिसंबर 2012
जनशक्ती
यह जनशक्ती हैं जो सभी नेता लोगोकों शोक व्यक्त करने का मौक़ा मिला हैं, शायद दिल से ना सही लेकिन जनशक्ती का असर जरुर हैं। समझो अगर हम लोग सब इस आन्दोलन में नहीं होते तो यह घटना भी एक समाचार पत्र या टीवी के किसी कोने में आकर चली जाती। इस लियें हमें अब यह सोचना होगा की हम सब एक हैं, और आनेवाले कल को बदलना हमारा केवल धर्म ही नहीं बल्की हमारा कर्तव्य भी हैं।
अब शोक व्यक्त करने वाले नेता लोग दिल्ली में लोगों पर लाठिया, और आसूं गैस के गोले दागकर इस आन्दोलन का खात्मा करने का प्रयास जरुर किया हैं। क्यूँ की नेता लोग नहीं चाहते की सभी लोग एक होकर सरकार या सिस्टम को खामिया उजागर करें और सरकार को हिला दें।
चाहें कुछ भी हम सब एक हैं, हमें इस देश की गंदगी की को मिटाना हैं। हम सब एक हैं, हमारी आवाज़ को सरकार मिटा नहीं सकती अब हमें औरतों का सन्मान करना होगा और उन अपराधियों को कड़ी से कड़ी सजा देनी होगी, आज वो दिन आ गया हैं, अब हमें हमारी आवाज़ को बुलंद कर के उन दरिंदों को सजा देनी हैं । आज पूरा देश शोक में डूबा हैं। आज हमें सबको नेक काम के लियें एक होना हैं, जनशक्ती को जागृत करना हैं। इसमें राजकरन ना हो क्यूँ की इससे जो एक सत्ता बने जो की हम इस देश में एक बदलाव आएँ और इस सड़े हुयें सिस्टम उखाड़ सकें। मैं आदर के साथ प्रणाम करता हैं इस जनशक्ती को। चलों नेक काम के लियें एक होकर एक जनांदोलन खड़ा करेंगे, की दुनिया में एक मिसाल बने की भारत का जनतंत्र सडा हुआ नहीं हैं।
हम सब एक हैं !हम सब एक हैं!! हमारी जनशक्ती।
शुक्रवार, 9 नवंबर 2012
"हलकट जवानी"
एक दिन जब मैं सुबह सुबह ऑफिस जा रहा था, जाते जाते एफ एम रेडियो पर गाने चल रहे थे। एक आदमी ने फरमाइश के लिए फोन किया ।
जब उनसे आर जे ने पूछा "हेलो आप कौन बोल रहे हैं?"
"मैं पवन बोल रहाँ हूँ" श्रोता पवनने कहा|
"आप क्या करते हैं?" आर जे ने पूछा।
"मैं एक कंपनी में मैनेजर हूँ" पवन ने कहा।
" कहिएं आप कौनसा गाना सुनना पसंद करेंगे" आर जे ने पूछा।
"मैं हेरोइन का गाना पसंद करता हूँ, हलकट जवानी" पवन ने कहा।
"सुबह सुबह हलकट जवानी याँद आ रहीं है, यह गाना किसे डेडीकेट करते हैं?" आर जे ने पूछा।
"मेरें बच्चों के लियें" पवन ने कहा।
"क्या करते हैं आपके बच्चें?" आर जे ने पूछा।
"मेरा एक बेटा सातवी कक्षा में पढता हैं, और दुसरा दसवी कक्षा में पढता हैं" पवन ने कहा।
"चलो आपकी पसंद का गाना सुनते हैं, हलकट जवानी, अगर आपको भी कोई गाना सुनना हैं तो हमें फोन कीजिएगा," आर जे ने गाना चालू किया।
यह सब सुनने के बाद, मैं सोच में पड़ गया की, हमारें संस्कार भी इसी तरह हलकट होते जा रहें हैं। फ़िल्मी गाने के साथ साथ माँ बाप को पता नही चल रहां हैं की कौनसा गाना सुने या ना सुने। एक जमानेमें हलकट शब्द का प्रयोग सिर्फ गाली देने के लियें इस्तमाल किया जाता था। क्या समय के साथ साथ शब्दों की परिभाषा भी बदल रहीं हैं? जो भी हों हमें सोचना होगा और ऐसे शब्दों का इस्तमाल फ़िल्मी गानों में रोकना जरुरी हैं।
रविवार, 23 सितंबर 2012
पैसे पेड़ पर नही उगतें...
बहार सब्जी वाले के साथ ...
मैडम - सब्जी बेच रहें हो या सोना?
सब्जीवाला - सोना नहीं सब्जी ही बेच रहाँ हूँ मैडम,क्यूँ की सोना खाकर आदमी जी नहीं सकता।
मैडम - इतना दाम!! पैसे क्या पेड़ पर उगते हैं ?
सब्जीवाला - मैडम क्या बात करती हो, अगर पैसे पेड़ पर उगते तो मैं यह सब्जी क्यूँ बेचता?
मैडम - ठीक टोमाटो,आलू और मटर दोसौ दोसौ ग्राम दे देना।
सब्जीवाला - मैडम सब्जी खरीद रही हो या सोना।
मैडम -क्यूँ की सोना खाकर आदमी जी नहीं सकता।
घरमें ...
पत्नी- देखोजी महंगाई बहुत बढ़ गई हैं, इस लियें महीने का बज़ट बढ़ाना पडेगा।
पति -पैसे क्या पेड़ पर उगते हैं? जब चाहे तब बज़ट बढाती हों ? क्या करें? सैलरी बढती ही नहीं।
पत्नी - मुझे कुछ पता नहीं, इसके अलावां स्कूल ने टेम्पो की फी बढ़ा दी गयी हैं।
पति - मैं क्या कर सकता हूँ ?
बेटा - पप्पा ओफीस से आते वक्त पैसों का पेड़ लेकर आना, घरमें लगवा देंगे।
पप्पा - बेटें! पैसों का पेड़ नहीं होता।
बेटा - लेकिन सब लोग क्यूँ पूछ रहें हैं की, "पैसें क्या पेड़ पर उगते हैं?"
ऑफिस में ...
बॉस - क्या हैं यह सब ?
मेनेजर- सर यह कन्वैअन्स का प्रोपोज़ल हैं।
बॉस - क्यूँ ? इतना जादा!!
मेनेजर - सर अभी, डीज़ल की कीमत बढ़ने के बाद बस का किरया बढ़ गया हैं, इस लिए ?
बॉस - पैसे क्या पेड़ पर उगतें हैं? सॉरी यह हम बढ़ा नहीं सकतें।
देश में ...
हमने डीजल के दाम बढ़ा दिएं हैं, यह एक सही फैसला हैं।
हमने एफ डी आइ को अनुमति दी, ये भी सही फैसला।
हमने एल पी जी के दाम बढ़ा दिएं,ये भी सही फैसला हैं।
हमने सभी सही फैसलें लियें हैं, क्यूँ की पैसे पेड़ पर नही उगतें।
मंगलवार, 4 सितंबर 2012
नितीश का मुस्लिम कार्ड
आज कल देश में जो कुछ भी हो रहा हैं, कुछ भी ठीक नहीं। इससे एक बात सामने आती हैं ये सब नेता लोग वोटों के लिए अपना ज़मीर बेच देते हैं। मुंबई में आज़ाद मैदान में दहशत मचानेवाला एक आतंकी बिहारी मुस्लिम निकलता हैं, कल मुंबई का निकलेगा,क्यूँ की इन लोगों के लिय कोई देश, या कोई प्रान्त नहीं होता। इसका मतलब यह कतई नहीं होता हर भारतीय मुस्लिम आतंकवादी हैं। लेकिन एक और बात इससे सामने आती हैं की उसका जो भी समर्थन करेगा वो भी आतंकी ही हैं, और रहेगा। क्या उस आतंकवादी को मुंबई पोलिस बिहार जाकर पकड़ नहीं सकती? जिस देशद्रोही ने जो आज़ाद मैदान में हमारे "अमर जवान" स्मारक को लात मारकर तोड़ दिया था,अब वक्त आ गया हैं की हमें भी ठीक उसी तरह उसें लात मारकर देश से बहार निकलना चाहिए।
नितीश इतने समझदार हैं की, मुस्लिम वोट बैंक खोने नहीं देंगे, चाहें मोदी का विरोध करना हो या, देश के अस्मिता पर लात मरनेवाला आतंकी हो। जो की खुदको प्रधानमंत्री पद का दावेदार समझते हैं। बात तो सही हैं, देश का प्रधानमंत्री इसी तरह का होना चाहियें, अगर झूट लगता हैं तो, इतिहास देख लीजिएगा। क्यूँ यहाँ धर्म-निरपेक्ष का नक़ाब पहनना जरूरी हैं।
हम लोग मीडिया की बातोंमें आकर प्रांतीय वाद-विवाद में फस जातें हैं? इसमें सिर्फ मीडिया और नेतालोगों की रोज़ी रोटी चलती हैं। जो आतंकी हमारें देश के सन्मान को लात मरता हैं। उसे सजा जरुर मिलनी चाहियें, वो चाहें मुंबई का हो या बिहार का हो, हमारा लक्ष एक ही होना चाहियं की, सिर्फ भारत देश।
शुक्रवार, 31 अगस्त 2012
"सेकंड हैन्ड weds हलकट"
"सेकंड हैन्ड जवानी" के बाद अब "हलकट जवानी" ने धूम मचा दिया हैं। असलियत क्या हैं, चलो जान लेते हैं।
एक शहर में "सेकंड हैन्ड जवानी" नाम का आदमी रहता था। यहाँ इंसान की जगह आदमी शब्द का प्रयोग किया हैं, क्यूँ की इंसान की एक विशिष्ट परिभाषा होती हैं, लेकिन आदमी कहना सरल और सहज होता हैं। अब उसका असली नाम क्या हैं, क्या था, पता नहीं। लेकिन सभी लोग उसे "सेकंड हैन्ड जवानी" कहकर ही बुलाते हैं। इसके पीछे भी एक कहानी हैं। वह कहानी इस तरह हैं की, उसने पत्नी को तलाक़ दे दिया, जिसके दो संतान थे, तलाक़ के बाद वो अपने माँ के साथ ही रहते हैं। अब यहाँ सोचने वाली बात यह हैं की, जो आदमी अपनी जवानी की भूख मिटाने के बाद, बीवी को तलाक़ देता हैं, उसके साथ साथ परिवार को भी ख़त्म कर देता हैं।
एक दिन "कॉकटेल" पार्टी में उसकी मुलाक़ात एक लड़की से होती हैं, उसका नाम था "हलकट जवानी।" हलकट जवानी और "सेकंड हैन्ड जवानी" के बिच में प्यार होता हैं। अब दोनों शादी करना चाहतें हैं। इस लियें लोग उसे "सेकंड हैन्ड जवानी " के नाम से जानते हैं।
अब तक हमने "सेकंड हैन्ड जवानी" के बारें में जान चुके है, अब हम "हलकट जवानी" के बारें में जानतें हैं। "हलकट जवानी" नाम की एक सुन्दर और जवान कन्या हैं, जो की दिखने ने में किसी "हीरोइन" से कम नहीं। पुरे दुनिया में उसकी सुन्दरता के चर्चे हैं। इस दुनिया में उसें कहीं भी एक अच्छा, सुशिल "फर्स्ट हैन्ड" जवान लड़का मिल सकता था। लेकिन वो सिर्फ "सेकंड हैन्ड जवानी" से ही प्यार करती हैं। इस लियें लोग उसें "हलकट जवानी" के नाम से जानते हैं।
जो आदमी अपनी पहली बीवी को तलाक़ देकर दूसरी शादी कर रहा हैं, यह सब जानने के बाद भी "हलकट जवानी" उसके प्यार में पागल हो चुकी हैं। क्या करे, जवानी चीज ही ऐसी होती हैं। ऐसी हैं "हलकट जवानी" की कहानी।
अब आप इसे प्रेम कहानी कहें या लगाव, जो की यौनक्रिया के लिय जरुरी हैं। अब शादी की बात पक्की हो चुकी हैं। कुछ दिनोंमें कार्ड छपने वालें हैं की, "सेकंड हैन्ड weds हलकट।"
मंगलवार, 28 अगस्त 2012
बांग्लादेशी मुसलमान
असम के दंगे, मुंबई में रैली के दौरान हिंसा, क्या यह सब बांग्लादेशी मुसलमानों की करतूत तो नहीं हैं? क्यूंकि उन लोगों के खून में हिंसा, बलत्कार और कट्टरवाद भर चुका है, और अब यह उनकी आदत बन चुकी हैं। इसका प्रमाण हैं तसलीमा नसरीन की "लज्जा" जो वहां के हालात के चित्रण के साथ साथ पुरे दुनिया के लिए एक उदाहरण हैं। बात जब तक उनके देश तक सिमित हैं, हम कुछ भी नहीं कर सकते, जब यहीं बात हमारें भारत देश में होती हैं तो हमें सोचना पड़ेगा की इसका इलाज़ क्या हैं, इसका निवारण कैसे हो।
दुनिया में जहां भी हो, वो दंगे करेंगे, क्यूँ की, उनको आदत पड़ चुकी हैं की, दुसरे धर्म पर आक्रमण करकर उनके जान माल को क्षती पहुंचाना। अब यही चेहरा उभरकर आ रहा हैं। जब वो खुद के देश में इतना सब कुछ करते हैं तो, दुसरे देश में इससे भी कई ज्यादा करेंगे। क्यूँ की वो उनका देश नहीं हैं। दुसरे कौनसे देश में भी इजाजत के बिना जा नहीं सकतें, सिर्फ भारत को छोड़कर।
हम सब अपने अपने गाँव से प्यार करते हैं, जहाँ हमने अपना बचपन गुजारा हैं। हम सब अपनी भूमि से प्यार करते हैं, इस लिय तो हम सब इन विषयों पर सोचते हैं। अब बात यह हैं की जो लोग विदेश से आकर यहाँ बसते हैं, वो देश के बारें में क्यूँ सोचेंगे? सोच भी नहीं सकते। एक तरफ बांग्लादेशी मुस्लिम जो देश में आकर आतंक मचा रहें हैं, दूसरी तरफ विदेशी देश चला रहें हैं। इसमें देश प्रेम कहाँसे आयेगा, और जब तक देश के प्रति प्रेम नहीं हैं वो देश हित में कदम क्यूँ उठाएंगे।
जब पकिस्तान, इराक़ और अफगानिस्तान हर रोज़ कई मुस्लिम लोग आतंक से मारे जातें हैं, तब कोई मोर्चा नहीं निकालता, कोई आवाज़ नहीं उठती। असम में लोग मरते हैं, कोई मोर्चा नहीं निकालता, कोई आवाज़ नहीं उठती। सरकार चुप, मीडिया चुप, और नेता भी चुप। लेकीन जब बर्मा में कुछ लोग मरते हैं तो मुंबई से लेकर लन्दन तक मोर्चे निकालते हैं। क्या जो पकिस्तान, इराक और अफगानिस्थान में मरने वालें इंसान नहीं है? वो भी इंसान हैं लेकिन मरने वाले और मारने वाले एक ही धर्म के हैं।क्या असम में मरने वालें इंसान नहीं हैं? असम की बात अलग हैं वहाँ जो मर रहें हैं वो तो मोर्चे वालें धर्म के नहीं हैं। टीवी पर बड़े बड़े बातें करनेवालें फ़िल्मी लोग, जावेद अख्तर, आमिर खान आदि, किसी ने भी नहीं कहा की असम में गलत हो रहा हैं। देश के नेता लोग क्या करेंगे जो गुलाम बन बैठे हैं।.....आखिर कब कब तक सहेंगे ?
दुनिया में जहां भी हो, वो दंगे करेंगे, क्यूँ की, उनको आदत पड़ चुकी हैं की, दुसरे धर्म पर आक्रमण करकर उनके जान माल को क्षती पहुंचाना। अब यही चेहरा उभरकर आ रहा हैं। जब वो खुद के देश में इतना सब कुछ करते हैं तो, दुसरे देश में इससे भी कई ज्यादा करेंगे। क्यूँ की वो उनका देश नहीं हैं। दुसरे कौनसे देश में भी इजाजत के बिना जा नहीं सकतें, सिर्फ भारत को छोड़कर।
हम सब अपने अपने गाँव से प्यार करते हैं, जहाँ हमने अपना बचपन गुजारा हैं। हम सब अपनी भूमि से प्यार करते हैं, इस लिय तो हम सब इन विषयों पर सोचते हैं। अब बात यह हैं की जो लोग विदेश से आकर यहाँ बसते हैं, वो देश के बारें में क्यूँ सोचेंगे? सोच भी नहीं सकते। एक तरफ बांग्लादेशी मुस्लिम जो देश में आकर आतंक मचा रहें हैं, दूसरी तरफ विदेशी देश चला रहें हैं। इसमें देश प्रेम कहाँसे आयेगा, और जब तक देश के प्रति प्रेम नहीं हैं वो देश हित में कदम क्यूँ उठाएंगे।
जब पकिस्तान, इराक़ और अफगानिस्तान हर रोज़ कई मुस्लिम लोग आतंक से मारे जातें हैं, तब कोई मोर्चा नहीं निकालता, कोई आवाज़ नहीं उठती। असम में लोग मरते हैं, कोई मोर्चा नहीं निकालता, कोई आवाज़ नहीं उठती। सरकार चुप, मीडिया चुप, और नेता भी चुप। लेकीन जब बर्मा में कुछ लोग मरते हैं तो मुंबई से लेकर लन्दन तक मोर्चे निकालते हैं। क्या जो पकिस्तान, इराक और अफगानिस्थान में मरने वालें इंसान नहीं है? वो भी इंसान हैं लेकिन मरने वाले और मारने वाले एक ही धर्म के हैं।क्या असम में मरने वालें इंसान नहीं हैं? असम की बात अलग हैं वहाँ जो मर रहें हैं वो तो मोर्चे वालें धर्म के नहीं हैं। टीवी पर बड़े बड़े बातें करनेवालें फ़िल्मी लोग, जावेद अख्तर, आमिर खान आदि, किसी ने भी नहीं कहा की असम में गलत हो रहा हैं। देश के नेता लोग क्या करेंगे जो गुलाम बन बैठे हैं।.....आखिर कब कब तक सहेंगे ?
रविवार, 26 अगस्त 2012
सरकारी सोशल मीडिया
जब अन्ना का पहला सफल आन्दोलन हुआ था, इसमें सोशल नेटवर्क का बहुत ही बड़ा योगदान रहा। सरकार तभी से सोशल मीडिया के तरफ कटाक्ष नज़र से देखने लगी थी। संचार मंत्री ने उस वक्त यह भी कह डाला था, की सोशल मीडिया को बंद कर देना चाहिय। समय उचित नहीं था, इस लिय सरकार ने एक प्लानिंग के तहत काम करना शुरू किया। पूरी सोशल नेटवर्क पाबंदी लाने से बेहतर यह होगा की जो जरुरी नहीं उन्ही लोगों के खाते बंद करना ठीक रहेगा, इससे सांप भी मरें लेकिन लाठी भी ना टूटे।
पहली बात तो यह हैं की सोशल मीडिया में कुछ लोगों पर पाबंदी देशहित में तो होही नहीं सकती, लेकिन पार्टी के हित में भी नहीं होगी, क्यूंकि इस मीडिया में जितने भी लोग हैं, उसमें ज्यादा लोग तो इस सरकार के बारे में उलटा सीधा कहने वालें ही हैं। इसका खामियाजा पार्टी को उठाना पडेगा,क्यूंकि जिन लोगों के खाते बंद कर दियें, इससे सरकारी पार्टी को कुछ भी फायदा नहीं होगा, क्यूँ की जिन लोगों के खाते बंद होने वाले हैं, या हो गए हैं, वो तो सरकार के पक्ष कभी नहीं थे, या नहीं रहेंगे। लेकीन इससे आम लोगों में एक सन्देश जरुर जाएगा की सरकार जो कुछ कर रही हैं, वो ठीक नहीं। लेकिन आम आदमी की परिभाषा क्या है? क्या आम आदमी वही हैं जो की सोशल मीडिया से जुडा हैं।
सरकार असम का हिंसा के आड़ में सोशल मीडिया के कुछ लोगों के खाते बंद करके, मुसलमान वोटों को अपने तरफ खींचने की एक नयी चाल तो नहीं हैं? लेकिन इससे एक बात तो साबित हो गयी हैं की सरकार असम के आड़ में आरएसएस और कुछ मीडिया कर्मी के ट्वीटर खाते बंद कर चुकी हैं इसका सीधा मतलब यह हैं, सरकार को असम हिंसा से कुछ भी लेना देना हैं। क्या यह 2014 के चुनाव के लिय वोटबैंक की रणनीति तो नहीं हैं?
लेकिन इन सब बातोंसे यह लगता हैं की सरकार अपने पॉवर का इस्तमाल लोकशाही के लिय नहीं, बल्की हुकुमशाही के लिय कर रही हैं, जो की देशहित में नहीं होगा, देशहित की बात तो छोड़ दो, उसके बारें में सोचता कौन हैं? लेकिन यह पार्टी के हितमें भी नहीं हैं। क्या सोशल मीडिया भी सरकारी सोशल मीडिया बनेगा? जैसा की सरकारी टीवी मीडिया, सरकारी स्कूल, सरकारी अस्पताल आदि।
सरकार असम का हिंसा के आड़ में सोशल मीडिया के कुछ लोगों के खाते बंद करके, मुसलमान वोटों को अपने तरफ खींचने की एक नयी चाल तो नहीं हैं? लेकिन इससे एक बात तो साबित हो गयी हैं की सरकार असम के आड़ में आरएसएस और कुछ मीडिया कर्मी के ट्वीटर खाते बंद कर चुकी हैं इसका सीधा मतलब यह हैं, सरकार को असम हिंसा से कुछ भी लेना देना हैं। क्या यह 2014 के चुनाव के लिय वोटबैंक की रणनीति तो नहीं हैं?
लेकिन इन सब बातोंसे यह लगता हैं की सरकार अपने पॉवर का इस्तमाल लोकशाही के लिय नहीं, बल्की हुकुमशाही के लिय कर रही हैं, जो की देशहित में नहीं होगा, देशहित की बात तो छोड़ दो, उसके बारें में सोचता कौन हैं? लेकिन यह पार्टी के हितमें भी नहीं हैं। क्या सोशल मीडिया भी सरकारी सोशल मीडिया बनेगा? जैसा की सरकारी टीवी मीडिया, सरकारी स्कूल, सरकारी अस्पताल आदि।
गुरुवार, 16 अगस्त 2012
भारत का मुसलमान हूँ
फेसबुक पर टैग की गयी तस्वीर पर एक "लघुलेख"
अब बात यह हैं यहाँ दो बातें हैं, जैसा की की मैं भारतीय हूँ, और मैं भारतीय मुसलमान हूँ। मैं भारतीय हूँ इसमें एकता का भाव दर्शाता हैं। मैं भारतीय मुसलमान हूँ इसका मतलब यह हैं की, इसमें दो भाव नज़र आतें हैं, जैसा की सिर्फ एक धर्म के बारें में बताने वाला हूं, जो की भारत में रहता हूँ । इस लियें हमें यह कहना ठीक होगा की, "मैं भारतीय हूँ"।
पुरी दुनिया जानती हैं की ताजमहल किसने और कैसे बनाया। टीपू सुलतान की तो बात तो अलग हैं, उसे तो हर हिन्दुस्तानी जानता हैं। हमें गर्व हैं की एक मुहम्मद इकबाल ने "सारें जहां से अच्छा" यह गीत देश के नाम लिखकर देश को एक बड़ा तोहफा दिया हैं। हम इन महान लोगों को कभी भूल नहीं सकतें। इन महान लोगों को साथ दहशतगर्द की तुलना करना, या इस शब्द का प्रयोग करना उचित नहीं होगा।
जिसने मुंबई पे हमला किया वो कौन था ? जिसने पार्लमेंट पे हमला किया वो कौन था? पकिस्तान में रहने वाले हिन्दू लोगों को देश से निकाल रहें हैं वो कौन हैं ? भारत में घुस कर असम में दंगा फैला रहे हैं, वो कौन हैं ?
दहशतगर्द सिर्फ दहशतगर्द होता हैं। हम तो सिर्फ उन्हें दहशतगर्द मानतें हैं जो किसी भी सूरत में देश में आतंक फैलाकर देश के मासूम लोगों का शिकार करतें हैं, उनका कोई धर्म नहीं होता।
जब तक हम यह नहीं कहते की"मैं भारतीय हूँ", ना की भारत का मुसलमान हूँ, भारत का हिन्दू हूँ, भारत का इसाई हूँ या भारत का सिख हूँ। जब तक हम यह नहीं कहते की हम भारतीय हैं, इसमें एक अलग ही जज्बा होगा, जो सिर्फ देश के लिए होगा।
मंगलवार, 14 अगस्त 2012
सन्देश या आदेश
आजादी का मतलब एक दिन की छुट्टी और राष्ट्र ध्वज फहराना यहाँ तक सिमित नहीं हैं। उसके साथ साथ आजादी का जश्न यानि राष्ट्रपति का सन्देश, जो मुफ्त में देख सकते हैं दूरदर्शन पर।
राष्ट्रपती का देश के नाम पहला सन्देश कुछ ऐसा लगता था की देश के प्रति कम और उन आन्दोलन करने वाले लोगों को दबाने के प्रति ज्यादा और भ्रष्ट नेताओं को संविधान के आड़ में सुरक्षा देना यही दर्शाता हैं। इससे ज्यादा उम्मीद हमारे राष्ट्रपति से करना उचित नहीं होगा, क्यूंकि वो खुद किसी के अहसान तलें दबे हुए हैं। इसी सन्देश में एक आदेश छुपा हैं। आज़ादी के सन्देश के लिये भी आजादी नहीं हैं।
इसी सन्देश से निकले कुछ सवाल, जवाब कौन देगा?
- क्या अंग्रेज भी हमारें शहीदों के प्रति यही ख़याल तो नहीं रखते थे? अब जो लोग सरकार के विरोध में आन्दोलन करतें हैं।
- अगर ऐसा हैं तो क्या फर्क हैं, उन शहीदों में और आज के आन्दोलन करने वाले लोगों में? वो भी तो यही सोच कर आन्दोलन करते थे, की देश आज़ाद हो। क्या भ्रष्टाचार से आज़ादी चाहना हमारा अधिकार नहीं हैं ?
- अगर लोग संविधान पर ऊँगली उठाते हैं तो, इसके लिय कौन जिम्मेदार हैं? क्या आन्दोलन करना या सरकार के खिलाप आवाज़ उठाना लोकतंत्र नहीं हैं?
- क्या भ्रष्ट नेता को सजा मिल सकेगी? कब और कैसे? अगर मिलती हैं तो अब भ्रष्ट नेता जेल में क्यूँ नहीं हैं?
- क्या वजह हैं की हमारें देश में नेता शब्द का अर्थ बदल गया हैं? शुभाष चन्द्र बोस भी नेताजी के नाम से जाने जाते हैं , लेकिन उनके बारें में लोगों के मन में उतना प्रेम और सन्मान क्यूँ हैं?
- क्या आप देश के उच्चतम पद का उपयोग करके इस भ्रष्ट नेताओं को सजा देने का प्रयास करेंगे ? क्या आप भ्रष्टाचार निर्मूलन के लियें कुछ ठोस कदम उठाएंगे ?
- आज देश के हालात के लियें कौन जिम्मेदार हैं? क्या संसद में बैठे लोग जिम्मेदार नहीं हैं?
- अगर सरकार चाहें तो सब कुछ संभव हैं। अब सवाल यह हैं की, सरकार लोगों को ऊँगली उठाने का मौक़ा क्यूँ देती हैं?
मेरे वतन के लोगो, देखो और जागो, आँख में भर लो पानी, लेकिन रोना नहीं, क्यूँ की कुछ दिन बाद यह आसूं भी सुक जायेंगे। चाहे कुछ भी हो नेता और संसद के बारें में कुछ भी कहना नहीं, क्यूँ की हम लोग ही उस नेता को देश संभालने के लिए भेजा हैं। अब आप इसे सन्देश समझो या आदेश यह आप पर निर्भर करता हैं।
शनिवार, 11 अगस्त 2012
चीन का दबदबा
चीन का दबदबा पुरे दुनिया में छा गया हैं, इसका प्रमाण हैं लन्दन ओलंपिक्स की मेडल टैली। क्या भारत इस मकाम तक पहुँच पायेगा? आज चीन का मुकाबला भारत से नहीं बल्कि सीधा अमेरिका से हैं। चीन दुनिया को बताना चाहता हैं की हम किसीसे कम नहीं।
जब 1952 के सम्मर ओलम्पिक्स फिनलैंड के हेलसिंकी में आयोजित, उसमें चीन को एक भी मेडल नहीं मिला था। उस बार अमेरिका 40 गोल्ड, 19 सिल्वर और 17 ब्रान्झ, कुल 76 पदाकोंके साथ नंबर एक पर था। रूस 22 गोल्ड के साथ दुसरे नंबर पर था। और भारत एक गोल्ड और एक ब्रान्झ के साथ 26 वे स्थान था।
1960 का ओलम्पिक इटली के रोम खेला गया था। रूस पहले स्थान तो अमेरिका दुसरे स्थान पर था। भारत और चीन एक एक सिल्वर के साथ 32 वे स्थान पर थे।
1964 के ओलम्पिक में भारत एक गोल्ड के साथ 24 वे स्थान पर था। इस बार चीन के ताइवान टीम को खाली हाथ लौटना पडा। उसके बाद 1968 में भारत और ताइवान चीन को एक एक ब्रान्झ मेडल से लौटना पडा। 1976 में चीन के ताइवान और भारत को खाली हाथ लौटना पड़ा।
जब 1984 में चीन 15 गोल्ड के साथ चौथे स्थान पर आ गया। भारत कोई भी मेडल नहीं ले सका।इसके बाद चीन कहता गया की रोक सके तो रोक लेना।
अब दुनिया में चीन अमेरिका को पछाड़ने की तैयारी में लगा हैं। क्या भारत यह स्थान हासिल कर पायेगा ? इसके लियें एक लम्बी और पूर्व नियोजित योजना की जरुरत हैं, जो चीन ने अपनाई हैं। हमारी सरकार तो सिर्फ भ्र्ष्ठाचार की तरफ बढ़ रही हैं। ऐसें में क्या देश में खेल का विकास हो पायेगा? क्या चीन के इस चौतरफा विकास को हम चुनौती दे सकते हैं? क्या हमारी आनेवाली पीढ़ी गर्व से कह सकेगी 'मेरा भारत महान"। अब वक्त आ गया हैं की हमें कुछ करना होगा और इस देशद्रोहियोंको सत्ता से हटाना होगा। कब तक सहेंगे हम, आखिर कब तक?
गुरुवार, 2 अगस्त 2012
टीवी मीडिया..
(फेसबुक में टैग की गयी एक तस्वीर)
क्या भारतीय टीवी मीडिया का रूप बदल चुका हैं ? क्या हमारा टीवी मीडिया लोगोंका भरोसा जितने का मौक़ा गवां चुका हैं? क्या टीवी मीडिया को लोग किसी भ्रष्ट नेता की तरह तो नहीं देख रहे हैं? सवाल बहुत सारे लेकिन जवाब कौन देगा?
फेसबुक पर तो बहुतसे लोगोंने मीडिया पर अपनी राय जाहिर की हैं, की हमारा टीवी मीडिया बिकाऊ हैं। हमारा मीडिया निष्पक्ष ख़बरें देने में असहाय हैं। अब सवाल उठना लाज़मी हैं, क्यूँ की असम में जो कुछ हुआ क्या वो गुजरात के दंगो से कम था। आखिर ऐसी क्या वजह हैं की मीडिया लोगों का भरोसा जितने में नाकाम हो रहा हैं। बहुतसे लोगों की राय यह हैं की निचे दियें गएँ कारणोंसे मीडिया अपना वजूद खोता जा रहा हैं।
- असम जलता रहा लेकिन मीडिया का कवरेज निष्पक्ष नहीं रहा।
- जरूरत से ज्यादा मोदी को निशाना बनाना।
- सत्ताधारी लोगों के बारें में बहुत कम बोलना।
- ख़बरें तोड़ मोड़ कर पेश करना।
- कभी कभी दिन भर एक ही खबर को घिसातें रहना।
- अन्ना का कवरेज पहले जैसा नहीं किया।
शुक्रवार, 27 जुलाई 2012
सेकंड हैन्ड जवानी...
पता ही नहीं चलता की कभी कभी हम इतनी छोटी छोटी बातों पर बहस करने लगते हैं,और वही बहस लड़ाई का जरिया बन जाती हैं। एक दिन मैं मेरे साथियों के साथ एक होटल में चाय की चुस्की ले रहा था। बाहर हल्किसी बारिश हो रही थी और होटल में एफ एम चैनल में गाना बज रहा था " सेकंड हैन्ड जवानी" यह गाना सुनकर मेरे एक साथी ने कहा "क्या ज़माना आया कैसे गाने निकल रहे हैं आजकल, पुराने जमाने के गाने देखो क्या गाने थे।"
मेरा दुसरा साथी बोला "क्या खराबी हैं इस गाने में? सही तो हैं सेकंड हैन्ड जवानी।"
फिर पहला साथी बोला "ठीक हैं तेरेपे सूट करता हैं, जैसा की पहली वाली को छोड़ कर दूसरी के पीछे पड़ा हैं, वही तो हैं सेकंड हैन्ड जवानी।"
पहला साथी भड़क गया और कहा "सुन ! यहाँ मैंने उसको छोड़ा नहीं, उसने मुझे छोड़ा हैं।"
दुसरे साथी ने जवाब दिया "शायद तुझे सेकंड हैन्ड समझकर छोड़ दिया होगा।"
बात इतनी बढ़ गयी की दोनो इस तरह झगड़ने लगे की चाय नहीं बल्कि कॉकटेल लिया हो। फिर मुझे बीचबचाव के लिय उतरना पड़ा, लेकिन बहस इतनी जोर से छिड़ी थी की मेरी बात शायद उन्ही के कानों तक पहुच ही नहीं पा रही थी। फिर मैं बोला तुम दोनोही सेकंड हैन्ड हो । तब दोनों चुप हो गये, फिर मैंने आगे कहा, मुझे पता नहीं सेकड़ हैन्ड जवानी क्या होती हैं। लेकिन इतना जरुर पता चला की आप दोनों की सोच तो सेकड़ हैन्ड जरुर हैं। अब हमें सैफ से मालूम करना पडेगा की सेकंड हैन्ड जवानी क्या होती है, क्यूँ की सिर्फ वही इसका सही जवाब दे सकता हैं।
मेरा दुसरा साथी बोला "क्या खराबी हैं इस गाने में? सही तो हैं सेकंड हैन्ड जवानी।"
फिर पहला साथी बोला "ठीक हैं तेरेपे सूट करता हैं, जैसा की पहली वाली को छोड़ कर दूसरी के पीछे पड़ा हैं, वही तो हैं सेकंड हैन्ड जवानी।"
पहला साथी भड़क गया और कहा "सुन ! यहाँ मैंने उसको छोड़ा नहीं, उसने मुझे छोड़ा हैं।"
दुसरे साथी ने जवाब दिया "शायद तुझे सेकंड हैन्ड समझकर छोड़ दिया होगा।"
बात इतनी बढ़ गयी की दोनो इस तरह झगड़ने लगे की चाय नहीं बल्कि कॉकटेल लिया हो। फिर मुझे बीचबचाव के लिय उतरना पड़ा, लेकिन बहस इतनी जोर से छिड़ी थी की मेरी बात शायद उन्ही के कानों तक पहुच ही नहीं पा रही थी। फिर मैं बोला तुम दोनोही सेकंड हैन्ड हो । तब दोनों चुप हो गये, फिर मैंने आगे कहा, मुझे पता नहीं सेकड़ हैन्ड जवानी क्या होती हैं। लेकिन इतना जरुर पता चला की आप दोनों की सोच तो सेकड़ हैन्ड जरुर हैं। अब हमें सैफ से मालूम करना पडेगा की सेकंड हैन्ड जवानी क्या होती है, क्यूँ की सिर्फ वही इसका सही जवाब दे सकता हैं।
मंगलवार, 24 जुलाई 2012
यमपुरी की रेललाइन...
"उस हरामी को बोला था, देख रेलवे लाइन क्रास नहीं करना, फिर भी साला बात नहीं माना अब टपक गया ना।" पांडे ने सर पर हाथ रखकर बोला।
"क्यूँ पांडेजी किसके बारें में बोल रहे हो ? वही साला रोहन कट गया ना ट्रेन के निचे, अभी अभी रेलवे पुलिस से फोन आया था,और पूछ रहे थे क्या रोहन इसी कंपनी में काम करता हैं? मैंने पूछा क्या हुआ तो उसने कहा हमें एक लाश मिलीं हैं उसके पास से रेलवे का पास मिला हैं, उसीपे यही नंबर लिखा हुआ था।"
"आगे क्या करना हैं? उसके घर में इन्फोर्म करना होगा।" मैंने कहा।
"नहीं मैं उसे कई बार समझाया था की रेलवे लाइन क्रास मत कर, नहीं तो तेरी मौत की खबर तेरे घरवालों को मुझे ही देनी पड़ेगी।"
"आप उसके घर जाकर बता दीजिएगा, फोन करना ठीक नहीं होगा और उसके घर का पता तो आपको मालूमही हैं।" मैंने कहा।"
थोड़ी देर तक पांडे सोचता रहा और फिर कहा। "इस हकीक़त को मैं कैसें फेस करूंगा, पता नहीं उसके घरवालों के सामने क्या और कैसे बताउंगा।"
हम यह बातचीत कर ही रहें थे हमारें कुछ और साथी वहां आ गएँ, और पांडेजीने पूरा वाकया फिरसे सभी को सुनाया। यह सुनकर हमारें सभी साथी चिंतित थे। किसी को भी काम करने का मन ही नहीं हो रहा था। उतने में हमारा एक साथी इशारा करतें हुए कहा "वो देखो रोहन।" सब लोग खामोश नज़र से उसे देखने लगे।हमारें एक साथी तो पांडे को गालिया देकर कहने लगा, साला सुबह सुबह इस भैया की बातों में आ गया।
अब पांडे को रहा नहीं गया उसने रोहन से पूछ ही लिया।
रोहन शांत होकर बताने लगा। "जब मैं अँधेरी स्टेशन बाजु वालें ट्रैक से क्रोस्सिंग कर रहा था, हमें पता नहीं चला की वह लोकल उसी लाइन पे आ रहीं हैं जिस पे हम खड़े थे। मेरे सामने का एक आदमी मर गया और मेरा बैग उसके साथ गिर गया, और उसी में मेरा रेलवे पास था। हे भगवान आज तो बच गया। अँधेरी स्टेशन पे एक जगह ऐसी हैं की, सभी को लगता हैं की ट्रेन बाजु के ट्रैक पे आ रही हैं लेकिन कभी कभी ट्रेन इस ट्रैक पे आ जाती हैं।"
बात तो सच हैं मुंबई हर रोज कितने लोग इस यमराज के बिछाये हुए जाल में कटकर मर जातें हैं। हमारी थोडीसी लापरवाही हमें मौत के घाट उतार सकती हैं। हमारें पास हर जगह पुल बने हैं, लेकिन कुछ लोगों को वक्त ही नहीं मिलता की उस पुल का उपयोग करें। शायद यह भी यमराज की चाल हो सकती हैं, जो उन्हीको समय के इस मायाजाल में अटका देता हैं, की वो सीधा रेलवे लाइन से कटकर सीधा यमपूरी में दाखिला ले सके ।
मंगलवार, 17 जुलाई 2012
बदल गया
जब आदमी बदल जाता हैं तो क्या होता हैं? अक्सर हम सुनते हैं की वो बहुत बदल गया हैं। बदल जाना यानि आप उस इंसान के हिसाब से नहीं चल रहें हैं, इस लियें आप बदल गएँ हैं। या आप जिसे भी कह रहें हैं की फलां आदमी बहुत बदला चुका हैं, इसका यह मतलब हैं की वो आपके हिसाब से नहीं चल रहा हैं।
अब यहाँ यह सवाल आता हैं की आपका हिसाब क्या हैं?
मेरा एक दोस्त जो हैदराबाद में रहता था। लम्बे अरसे के बाद उस का फोन आता हैं। हम फोन पर बहुत सारे बातें करते हैं। फिर एक दिन मुझे अचानक उसीके शहर में कुछ काम पड़ता हैं। तभी मैं उसे फोन करके कह देता हूँ की मैं कल आ रहां हूँ। मैं सोचता रहां कॉलेज के दिनों के बाद पहली बार हम मिल रहें हैं, हम बहुत सारीं बातें करंगे, शायद वो अब थोड़ा मोटा हो गया होगा आदि।
जैसे ही मैं एअरपोर्ट पे उतरा और उसे फोन लगया तो उसका फोन स्विच ऑफ आने लगा, मैं हैदराबाद में दो दिन रुकने वाला था, इसलियें मैं बादमें फोन करने का सोच लिया। दो दिन मैं उससे फोन पर संपर्क करना चाहा लेकिन फिर भी संपर्क नहीं हो सका। जब मैं लौट कर आया तो उसका फोन आया सॉरी यार मेरा फोन चोरी हो गया और तेरा नंबर भी उसी फोन में था, इस लिय फोन नहीं कर सका। मैंने गुस्से में कहा मुझे पता नहीं था की तू इतना बद्दल जाएगा। यह कहकर मैंने फोन काट दिया।
अगर आपको कोई ऐसा कहता हैं कीअब तू बदल गया हैं। मतलब यह हैं की,वो इंसान आपको चाहता हैं, या वो आपसे कुछ काम करवाना चाहता हैं। क्यूंकि अक्सर चाहने वालों का ही दिल टूटता हैं, और वहीँ इंसान जो आपसे रूठता हैं। एक बात और हैं, चाहत एकतरफा भी हो सकती हैं।
रविवार, 15 जुलाई 2012
मुंबई की भाषा
मुबई में एक नया आया हुआ युवक एक टपरीवाले को पूछता हैं।
" भैया यहाँ से दादर जाने के लिए कौनसी बस मिलेगी?"
"मुंबई में नया आयेला हैं क्या? लगता हैं गाँववाला हैं।"
"ये भैया गाँववाला किसे कहता हैं ? मैं दिल्ली से आया हूँ।"
"देखो यहाँ दिल्ली से हो या मद्रास से, नये आदमी को यहाँ गाँववाला ही कहते हैं, यह मुंबई की भाषा हैं।"
" भैया ऐसा क्यूँ?" और आप ने कैसे पहचान लिया की मैं बाहर का हूँ ?"
'देख यार पहली बात तो यह हैं की तू किसी को भी भैया कहकर बुलाना बंद कर।"
" भैया ही बोला ना, गाली तो नहीं दी ना।"
"अरे यार यहाँ भैयाका मतलब गाली ही तो हैं।"
"मैं समझा नहीं, कौन से भाषामें?"
"अरे बाबा मुंबई की भाषा में, देख मैं तुझे समझाता हूँ। अगर कोई आदमी युपी या एमपी से हो जिसे तुम भैया कहेगा तो मारने दौड़ेगा,क्यूँ की यह उन्ही के लियें गाली हैं। समझो वो अगर युपि का नहीं हैं, तो उसे और ज्यादा घुस्सा आयेगा,क्यूँ की भैया शब्द को बर्दाश्त नहीं करेगा।देख यहाँ साला बोल,बेवडा बोल या चमड़ीचोर बोल खूब चलेगा, लेकिन किसीकोभी भैया मत बोल। ठिक इसी तरह यहाँ मराठी को घाटी और मद्रासी को अन्ना मत कहना। तुम्हें पता हैं सबसे बुरा तो मुझे लगा, जब मैं भैया शब्द को सूना, अब समझ गया होगा की मैं कहाँसे हूँ। यह मुंबई की भाषा हैं, अगर यहाँ रहना हैं तो यह सीखना जरूरी हैं।"
शनिवार, 14 जुलाई 2012
बाइक और कार
एक युवक, स्टॉप पे खड़ी युवती को अपनी बाइक पे लिफ्ट ऑफर करने वाला ही था, उतने में और एक युवक कार में आता हैं और वो उस युवती लिफ्ट ऑफर करता तो युवती मान जाती हैं।
इसके पास कार हैं
इससे कैसे खेलूं मैं
इसकी कैसीं लेलूं मैं
फिर बाइक वाले युवक ने उसी स्टॉप पे खड़ी एक वृद्ध महिला को लिफ्ट ऑफर करता हैं। जब वो वृद्ध महिला बाइक पे जाने से हिचकिचाती हैं। उसी पर वहाँ खड़ी युवती कह देती हैं की "कोई बात नहीं माजी आप कार में चले जाना मैं बाइक पे चली जाती हूँ ।"
मेरी बेटी, जो छटी कक्षा में पढ़ती हैं उसने जब यह विज्ञापन देखा तो उसने झट से कहा क्या पागल हैं। मैं समझा नहीं तो उसने विस्तार कहा की कार में चार लोग जा सकते हैं ना, फिर माँजी के साथ उस युवती को भी लिफ्ट मिल सकती थी। कभी कभी छोटी छोटी बातें भी हम समझ नहीं पाते।
नवाब दिल...
जब मैं मुंबई से बंगलोर शिफ्ट हुआ था, तब मैंने नवाब बिल्डिंग में वन बीएचके का मकान किरायें पर लिया था। हमारे मकान मालिक का नाम नवाब था। जब मैं घर में शिफ्ट हुआ तो कुछ दिन बहुत ही अच्छा लगा। कुछ दिनों के बाद नवाब साहब हर दो तीन दिन में एक बार सौ या पचास रु मांगा करते थे । हमारे नवाब साहब की अदा ऐसी थी की, उधर सूरज ढला और नवाब का काम शुरू, साथ में एक दारू की बोतल और गणेश बीडी का बण्डल लेकर उन्ही के घर के हॉल में बैठ जाते थे। कभी कभी जब मैं अपने घर की तरफ जा रहा होता तो मुझे बुलकर बीडी पिने का ऑफर जरुर करते। मैं भी कभी कभी गाँव की यादों में गणेश बीडी का चुसका लेता था। हमारे नवाब साहब जब भी बोतल खोल बैठ जाते, तो उनकी बीवी से बहुत जोर जोर से बहस होती थी। कभी यह बहस झगड़े में तब्दील हो जाती,और मामला हाथापाई पर आ जाता। एक दिन सुबह नवाब साहब बीडी का चुसका लेते हुए हॉल बैठे हुए थे।माथे पर चोट का निशाँ था। जब मैंने पूछा तो उन्होंने कहा, आपको तो मालूम ही हैं, की यह मेरा जोरू के साथ रोज का झगड़ा हैं, उसीमें कुछ लगा होगा। नवाब साहब का स्टाइल यही था की किसी ना किसी से उधार मांगकर हो या कुछ भी हो लेकिन पीना जरुरी था। उधार नहीं देता तो खैर नहीं, घर खाली करने की धमकी देना नहीं भूलते।
शादी के बाद मैं घर बदलने का सोच ही रहा था। एक दिन सुबह नवाब साहब से कह दिया। मैं घर खाली करने वाला हूँ। फिर उसने कहा, अडवांस की जमा राशी दुसरा किरायदार आने के बाद ही दे दूंगा। मैंने कहा मुझे अभी चाहियें क्यूँ की मुझे दुसरे घर में भी अडवांस देना हैं। लेकीन उसने कहा नहीं दूंगा। मैंने घर बदलने का फैसला ले चुका था। अब अडवांस की राशी के लिए रुकना संभव नहीं था।
कुछ ही दिनों में मैंने घर चेंज किया। एक महीना बीत चुका था लेकिन नवाब साहब ने अडवांस के रूपये लौटाए नहीं यह सोचते सोचते घर में बैठा ही था की डोर बेल बजी। जैसे ही मैंने दरवाजा खोला और देखा तो द्वार पर नवाब साहब थे।जैसा की सैतान का नाम लिया और सैतान हाजिर। मैं मन ही मन सोचता था की साला बेवडा यहाँ भी आ गया भिक मांगने के लियें। मैने उसे घर में बुलाया और पूछा कैसे क्या आना हुआ ? और आपको इस घर का पता कैसा चला? नवाब साहबने मुस्कुराते हुए कहा की पचास रू मिलते तो अच्छा होता। मैं थोड़ा परेशान हुआ तो उसने कहा, परेशां होने की जरुरत नहीं, मैं अडवांस की राशी लौटाने आया हूँ। मुझे पल भर झूट ही लगा फिर उसने अपने जेब में से रु निकलकर मेरे हाथ में थमाते हुए कहा गिन लो।
कभी कभी हम कुछ लोगों को समज ही नहीं पाते क्यूँ की जो जैसे दिखतें हैं वैसें होते नहीं। सच में वो दिल का नवाब था। क्यूँकी बहुतसे लोग ऐसे होते हैं की, जरुरत पड़ने पर उधार तो लेते हैं लेकिन चुकाना भूल जाते हैं।
शनिवार, 30 जून 2012
अथिति सत्कार
बात उन दिनों की हैं, मैं मुंबई में रहा करता था। हमारें सभी सहकर्मी मिलकर यह सोच लिया की बरसात मौसम में कही जाने का, जैसा की कोई हिल स्टेशन जहां पानि के बहुत सारे झरने हो। आखिर में माथेरान जाने का कार्यक्रम निश्चित हो गया। हमारें प्लान के हिसाब से सभी लोग कुर्ला स्टेशन पर मिलेंगे और वहाँसे दादर, और दादर से हम लोग हमारे सहकर्मी लीना के घर जाकर उसें साथ लेंगे और रात के बारा बजे कर्जत जाने वाली आखरी लोकल जो नेरल स्थानक जाती,वहाँ से माथेरान।
हम घर से सात बजे ही निकल चुकें थे। दादर स्थानक के बहार खड़े होकर हम मीना का इन्तजार कर ही रहे थे, उतने में वो आ गयी। हम सात लोग थे, इसलियें हमें दो टैक्सी में सवार होना था, क्यूंकि मुंबई में सायन के आगे ऑटोरिक्शा नहीं चलते और लीना के घर जाने का प्लान बना। जाते समय हमारे सभी साथी यह कह रहे थे की लीना के घर जाकर हम कुछ खा लेंगे और वहां से निकल लेंगे। लीना वरली में रहती थी।
हम ने टैक्सी से उतरकर लीना के फ्लैट में दस्तक दी। लीना ने द्वार खोलकर वेलकम कहते हुए हमारा स्वागत किया। जैसा ही हम फ्लैट में दाखिल हुयें लीना ने हम सब का परिचय आपने माँ से करवाया। हम थोड़ी देर तक बैठे रहें और सोचते रहें की थोड़ी देरमें कुछ खाने का इंतजाम होगा। लेकिन..... किसी ने सच ही तो कहा था की दाने दाने पे लिखा हैं खाने वालें का नाम। अब हमें पता चल चुका था की हमारें नाम के दाने उस घर में नहीं थे। खाना तो बहुत ही दूर की बात थी, उसने पानी तक नहीं पूछा। फिर हमारे एक दोस्त ने पिने के लियें पानी मांगकर लिया। थोड़ी देर बाद हम वहांसे निकलें और सत्यम शिवम् सुन्दरम सिनेमा घर के बाहर खड़े ठेलें पर कुछ खा कर पेट की भूक मिटा ली। ऐसा अथिति सत्कार हमने पहली बार देखा। वैसा तो हम मुंबई में बहुत से दोस्तों के घर जाया करते थे, और कुछ खाने के बाद ही निकलते थे। लीना जोशी का यह अथिति सत्कार एक यादगार पल बन चुका था।
शुक्रवार, 29 जून 2012
लिफ्ट प्लीज़!
बात उन दिनों की हैं, जब मैं कॉलेज में था। मैं जब भी कॉलेज से शहर की और जाता था, तो किसीना किसीसे लिफ्ट मांगकर जाया करता था। हमारा कॉलेज शहर से 6 की मी दुरी पर था। एक दिन मैं हमेशा की तरह बस स्टॉप पे खड़ा था बस आकर चली गयी, लेकिन मैं किसी लिफ्ट वाले का इन्तजार करते वही पे खडा था। बस का किराया जो बचाना था। मैंने एक बाइक वाले से लिफ्ट मांगी, और उसने मुझे लिफ्ट दे दी, जब मैं लिफ्ट लेकर उतरने लगा तो उसने कहा चलो बीस रूपये निकालो ? मैंने कहा मेरे पास तो सिर्फ बीस रुपये हैं, इससे मैं पिक्चर देखना चाहता हूँ। चलो फिर दस रूपये दे दो और दस रूपये का फिल्म देख लेना। मैंने दस रुपयें निकाल के उस में हाथ में थमा दिए। बस फेयर के दो रूपये बचाने के चक्कर में दस रूपये गवां चुका था।
बहुत बार ऐसा होता हैं की हम जो सोचते हैं, वो होता नहीं। इसी के साथ मैं मेरा फिल्म देखने का प्रोग्राम रद्द करना पड़ा । क्यूँ की 10 रुपये में मैं फिल्म तो देख लेता तो, लेकिन लौटकर जा नहीं सकता था।
इस वाकये बाद मैं मेरी लिफ्ट मांगने की आदत बदल दी। और सिर्फ बस से ही शहर जाने लगा था। यह हादसा जब मैं मेरे लिफ्ट मांगने वालें दोस्तों को सुनाया तो उन्होंने ने भी लिफ्ट लेना बंद कर दिया। मैं जब यह वाकया मेरे दोस्तों को सूना रहा था तभी मेरे लिफ्ट लेनेवाले एक दोस्त ने कहा, मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ था। जब हम ने उसे पूछा पहले क्यूँ नहीं बताया तो उसने कहा, अगर मैंने पहलेही बता दिया होता तो आप लोग मेरा मजाक उड़ाते। बात सही थी क्यूँ की यह उसी का तर्क था, जो हमें एक नया सबक सिखने को मिला।
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